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रविवार, 26 मार्च 2017



आज कवि अवतार सिंह संधू "पाश" का जन्मदिन है. 9 सितंबर 1950 को पाश का जन्म हुआ था और वे बहुत कम समय में 23 मार्च 1988 को हमारे बीच से चले गए.

मात्र 38 साल की उम्र में उन्होंने जो लिखा वह कमाल है. देश और समाज को बारीक नज़र से देखते हुए अपने समय की चीरफाड़ की उन्होंने और कहा कि बीच का रास्ता नहीं होता. इस बेहतरीन कवि को सलाम करते हुए आज उनकी कविताएँ...

|| अब विदा लेता हूँ ||

अब विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का जिक्र होना था

उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर

मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ

और अब मैं विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है

मैं शुक्रिया करना चाहता हूं
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है

प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने बनिए बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना,
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं

जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नही
जिन्हें जिन्दगी ने हिसाबी बना दिया
ख़ुशी और नफरत में कभी लीक ना खींचना
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फिदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूं

तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने
कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे सांचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना.
* * *

जो हमें याद नहीं रहता


मित्रो, आज "दस्तक" समूह के सदस्य और मित्र प्रेमचंद गांधी का जन्मदिन है. उन्हें जन्मदिन की आत्मीय बधाई के साथ रचनात्मक ऊर्जा के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ...
प्रेम चंद गांधी 


|| पहला चुंबन ||
जो हमें याद नहीं रहता
लेकिन हमारी देह पर अंकित हो जाता है
चेतना और स्मृति के इतिहास को कुरेद कर देखो
हमारी दादी, नानी, दाई, नर्स या
किसी डॉक्‍टर ने लिया होगा
इस पृथ्‍वी पर आने के स्‍वागत में
हमारा पहला चुंबन और
सौंप दिया होगा मां को
मां ने लिया होगा दूसरा चुंबन
पहली बार हमने सूखे मुंह से
मां की छातियों को चूमा होगा
शैशव काल में हम
जिसकी भी गोद में जाते
चुंबनों की बौछार पाते
हर किसी में खोजते
हमारी मां जैसी छातियां
हम नहीं जानते
कितनी स्त्रियों का दूध पीकर
हम बड़े हुए
कितनी स्त्रियों ने दिया
हमें अपना पहला चुंबन
थोड़ा-सा बड़ा होते ही
खेल-खेल में हमने
कितने कपोलों पर अंकित किया
अपना प्रेम
हम नहीं जानते
जन्‍म से मृत्‍यु तक
कितने होते हैं जीवन में चुंबन
हम नहीं जानते
जानवरों में जैसे मांएं
अपनी जीभ से चाट-चाट कर
अपनी संतान को संवारती हैं
मनुष्‍यों के पास चुंबन होते हैं
जो जिंदगी संवारते हैं।
* * *




||अगर हर्फों में ही है खुदा ||
वे घर से निकलती हैं
स्‍कूल-कॉलेज के लिए
रंगीन स्‍कार्फ या बुरके में
मोहल्‍ले से बाहर आते ही
बस या ऑटो रिक्‍शा में बैठते ही
हिदायतों को तह करते हुए
उतार देती हैं जकड़न भरे सारे नकाब
वे जिन किताबों को पढ़कर बड़ी होती हैं
उनमें कहीं जिक्र नहीं होता नकाबों का
इतने बेनकाब होते हैं उनकी किताबों के शब्‍द कि
अक्‍सर उन्‍हें रुलाई आती है
परदों में बंद
अपने परिवार की स्त्रियों के लिए
उनकी खामोश सुबकियों और सिसकियों में
आंसुओं का कलमा है
‘ला इलाह इलिल्‍लाह’
कहां हो पैगंबर हज़रत मोहम्‍मद साहेब
ये पढने जाती मुसलमान लड़कियां
आप ही को पुकारती हैं चुपचाप
आप आयें तो इन्‍हें निजात मिले जकड़न से
अर्थ मिले उन शब्‍दों को जो नाजि़ल हुए थे आप पर
अगर हर्फों में ही है खुदा तो
वो जाहिर क्‍यों नहीं होता रोशनाई में।
* * *



|| आंसुओं की लिपि में डूबी प्रार्थनाएं ||
सूख न जायें कंठ इस कदर कि
रेत के अनंत विस्‍तार में बहती हवा
देह पर अंकित कर दे अपने हस्‍ताक्षर
सांस चलती रहे इतनी भर कि
सूखी धरती के पपड़ाये होठों पर बची रहे
बारिश और ओस से मिलने की कामना
आंखों में बची रहे चमक इतनी कि
हंसता हुआ चंद्रमा इनमें
देख सके अपना प्रतिबिंब कभी-भी
देह में बची रहे शक्ति इतनी कि
कहीं की भी यात्रा के लिये
कभी भी निकलने का हौसला बना रहे
होठों पर बची रहे इतनी-सी नमी कि
प्रिय के अधरों से मिलने पर बह निकले
प्रेम का सुसुप्‍त निर्झर।
० प्रेमचंद गांधी